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Friday, July 5, 2013

परदेस


लौट के शाम को जब अपने घर मैं जाता हूँ
अपनी इस तन्हाई को मैं देख के डर जाता हूँ
मैं हूँ परदेसी मेरा जीवन है सफ़र में रहना
कहाँ किस्मत में मेरे अपने ही घर में रहना
अब तो तन्हाइ भी मुझसे नज़रें चुराने लगी
चेहरे की ये झुर्रियां भी मेरी उम्र बताने लगी
यूं तो कहने को सब हैं मगर कोई नहीं अपना
मैं देखता रहता हूँ अक्सर हर रोज़ ये सपना
कोन है दुनिया में जिस पर कोई उफ्ताद नहीं
पर कब हम हँसे थे खुल के ये हमें याद नहीं
कभी तो होगा खुशियों भरा ये जीवन अपना
रोज़ खुली आँखों से हम देखते हैं ये सपना
क्या खोया क्या पाया इसका कोई तोल नहीं है
कुर्बानियों का हमारी नासिर कोई मोल नहीं है
,,नासिर सिद्दीकी ,,

नासिर सिद्दीकी

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