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Wednesday, December 21, 2016

सारे रंगों के बीच एक मैं ही था तनहा

सारे रंगों के बीच एक मैं ही था तनहा
सारे लोगों के बीच एक मैं ही था तनहा
बेमानी से लग रहे थे सब अलफ़ाज़ मेरे
उन इशारों के बीच एक मैं ही था तनहा
समन्दर की लहरें अपने शबाब पर थीं
उन लहरों के बीच एक मैं ही था तनहा
हमारे बीच न जाने कैसी छा गई उदासी
ग़मों के धुप में एक मैं ही था तनहा
थे मुंसिफ भी वज़ीर भी दरबारे इश्क़ में
उस भरे दरबार में एक मैं ही था तनहा

भुला बैठा था उन्हें अपने दिल से लेकिन

भुला बैठा था उन्हें अपने दिल से लेकिन
ख्वाबों में अक्सर मुझे वो सताने आते है
ख्याल रहता है उनको इस क़दर मेरा
होता हूँ जब मैं उदास वो हंसाने आते हैं
सो जाता हूँ अक्सर इश्क़ की आगोश में
ख्वाबे गफलत से फ़रिश्ते जगाने आते हैं

मंज़िल मैं ढूंढ लूँगा कुछ हौसला तो दे

मंज़िल मैं ढूंढ लूँगा कुछ हौसला तो दे
बातों से ही सही मगर आसरा तो दे
खामोश क्यों खड़ा है कुछ बोल तो ज़रा
कब तक करू इंतज़ार तेरा ये बता तो दे
तेरी तलाश में मैं भटका हूँ दर बदर
ऐ रब्बे करीम मुझको अपना पता तो दे
तेरा ही इख्तयार है मेरे नसीब पे बेशक
क्या है मेरे नसीब में यारब बता तो दे

टूट के कुछ इस क़दर , चाहा हम ने तुझे

टूट के कुछ इस क़दर , चाहा हम ने तुझे
अब जलन है आँखों में और दर्द भी दोहाई दे
तू दूर भी है हमसे और पास भी लगे हमको
ये कैसा जादू है , के हर तरफ तू ही देखाई दे
अजनबी निगाहों से किस तरह देख लेता है तू
जैसे मुझे देखता है तू ,मुझे भी ऐसी बिनाई दे

चल ले चल अब अपनी नाव ले चलें

चल ले चल अब अपनी नाव ले चलें 
समन्दर के उस पार अपने गांव ले चलें 
बहुत दिन हुए अब हमें अकेला रहते 
सपनों से अपने दूर इस शहर में रहते 
चल तुझे फिर उस ठण्डी छाँव ले चलें 
कुछ दिन तो जी ले अब अपना जीवन
अब राह निहारे तुम्हे अपना घर आँगन
हिम्मत कर उठा क़दम अब पाँव ले चलें
अपनी बूढी माँ के था आँख का तारा
तू ही तो था अब्बा के लाठी का सहारा
चल चूम ले जन्नत माँ के पाँव ले चलें
तूने देख लिए ये कैसे कैसे सपने
जहां पे न हों कोई भी अपने
फिर भी तू जिए जा रहा था
अपने आंसू पिए जा रहा था
चल फिर जहां है ठण्डी छांव ले चलें
वल ले चल अब अपनी नाव ले चलें,


मैं मगरूर कहलाता हूँ के सच बोलता हूँ

मैं मगरूर कहलाता हूँ के सच बोलता हूँ
वो मोहज़्ज़ब है ज़माने में झूट बोल कर
समझोगे ज़रूर,मेरी बातें तुम किसी दिन
मैं जो भी बोलता हूँ , नाप तोल कर
जैसे तुम चाहो, अब पढलो मुझे नासिर
रख दी है मैंने अपनी, किताब खोल कर

दर्द अपना किसी से कहते नहीं हैं

दर्द अपना किसी से कहते नहीं हैं
कुछ ऐसे आंसू हैं जो बहते नहीं हैं
चीर के लहरों को बना लेते हैं रस्ता
पर लहरों के साथ कभी बहते नहीं है
सच बोलना ही , हमारी फितरत है
टूट कर भी , हम चुप रहते नहीं हैं