मैं खुद से बाहर निकल रहा हूँ
थोड़ा थोड़ा मैं पिघल रहा हूँ
मिलेगी मंज़िल ये सोच कर के
गिर२ के फिर मैं,संभल रहा हूँ
इन काली रातों की सुबह तो होगी
इसी उम्मीद पर मैं बदल रहाहूँ
कितनी हसीं होगी वो मेरी रातें
ये सोच कर ही मचल रहा हूँ
अपने कांधों पे बोझ लेकर
अनजान राहों पे चल रहा हूँ
बिछड़ के तुझसे ऐ ज़िन्दगी मैं
नासिर अब तक मैं जल रहाहूँ
थोड़ा थोड़ा मैं पिघल रहा हूँ
मिलेगी मंज़िल ये सोच कर के
गिर२ के फिर मैं,संभल रहा हूँ
इन काली रातों की सुबह तो होगी
इसी उम्मीद पर मैं बदल रहाहूँ
कितनी हसीं होगी वो मेरी रातें
ये सोच कर ही मचल रहा हूँ
अपने कांधों पे बोझ लेकर
अनजान राहों पे चल रहा हूँ
बिछड़ के तुझसे ऐ ज़िन्दगी मैं
नासिर अब तक मैं जल रहाहूँ
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