मैं शर्मिन्दह हूँ ऐसी आज़ादी पर |
अपने कौम की ऐसी बर्बादी पर |
इस देश में कोई आज़ाद नहीं |
कौन है जिस पर उफ्ताद नहीं |
हर शख्स यहाँ मासूम बना है |
पर सब का हाथ ख़ूँ से सना है |
इंसानियत यहाँ पर शर्मिंदा है |
इंसानियत का कातिल क्यूँ ज़िनदा है |
कौन सुने सच्चाई की बात |
लगाए बैठे हैं यहाँ सारे घात |
चैन से कोई यहाँ सोता नहीं है |
खुलके यहाँ कोई रोता नहीं है |
हर बेटी की इज्ज़त खतरे में है |
जैसे कोई बीच अंगारे में है |
किस से बांटे हम अपना ग़म |
सबकी आखें यहाँ पे है नम |
संभाले कौन हालत को नासिर |
बचाते हैं सब इस बात से नासिर |
इन चिरागों से अपने घरों को सजाया जाय |
किसी के घर को चिरागों से न जलाया जाए |
मज़हब हमें सिखाता है फ़क़त प्यार बांटना |
मज़हब की आड़ में नफरत न फैलाया जाए |
इस्लाम ने फ़क़त दरसे अखुव्वत दिया हमें |
अब राम के नाम पे धब्बा न लगाया जाए |
बहुत सियासत होगया मज़हब के नाम पर |
अब सिर्फ मुहब्बत का पाठ पढ़ाया जाए |
ये सियासी पार्टियां हमारी दुश्मन हैं नासिर |
ऐसी पार्टिओं को ही क्यूँ न भगाया जाए |
अपनि तहजीब को यूं नीलाम नहीं होने देंगे |
फिर अपने वतन में क़त्लेआम नहीं होने देंगे |
हमारे मुल्क की रफ़्तार हमारी जीनत हैं |
यहाँ कभी हम ट्रेफिक जाम नहीं होने देंगे |
हमारी एकता ही हमारी तहजीब है लोगो |
इस एकता को कभी हम बदनाम नहीं होने देंगे |
तुम्हे करनी है सियासत तो भले करो तुम मगर |
हम अपनी एकता को कभी नीलाम नहीं होने देंगे |
हिलाके रख् देंगे दुश्मनों के ऐवानों को हम |
मगर इसका दरहम बरहम नेजाम न होने देंगे |
हल कर लेंगे खुद ही अगर हो कमी किसी में |
मगर अपने घर को सराए आम नहीं होने देंगे |
अपनी रंजिशों को खुद ही हम दूर कर लेंगे |
मगर अपने मुल्क को वेयात्नाम नहीं होने देंगे |
अगर पड़ी ज़रुरत तो खून से नहला देंगे इसे |
मगर अपने देश को बदनाम नहीं होने देंगे |
खुदा करे हमारे मुक़द्दर का सूरज चमकता रहे |
इस सूरज का कभी हम शाम नहीं होने देंगे |
बड़ी मुश्किलों से मिली है हमें येआज़ादी नासिर |
फिर अपने देश को कभी गुलाम नहीं होने देंगे |
चलो आज मिलके ये वादा करें हम ,,नासिर |
भ्रस्ट नेताओं को कभी बेलगाम नहीं होने देंगे |
इस तरह हर ख़ुशी से नाता मैं तोड़ आया हूँ |
जिस दिन से अपने घर को मैं छोड़ आया हूँ |
परदेस का ज़िन्दगी भी भला कोई ज़िन्दगी है ? |
असली ज़िन्दगी तो मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ |
जलाके रख दिया चिराग़ घर के सामने मैं ने |
और हवा के रुख को अपनी तरफ मोड़ आया हूँ |
वफ़ा की चाह में मैं भटकता रहा दर बदर नासिर |
देखा जहां ज़रा सी मुहब्बत मैं वहाँ दौड़ आया हूँ |
लूटा है हर किसी ने हमें नया ख्वाब देखा कर |
कभी चश्मा देखा कर कभी तालाब देखा कर |
सुनहरे बाग़ के सपनों में पहले खूब घुमाया |
और बह्ला दिया बहुत दूर से गुलाब देखा कर |
फिर बीत गई बरसात मगर तुम नहीं आये |
करनी थी तुम से बात मगर तुम नहीं आये |
सपनों के इस आँगन में देखा तुम्हे अक्सर |
हमें मिलन था कल रात मगर तुम नहीं आये |
जीवन के इस मोड़ पे तुम छोड़ गए तनहा |
रस्ता देखा दिन रात मगर तुम नहीं आये |
न तुम आये न तुम्हारी कोई खबर ही आई |
आँखों से होती रही बरसात मगर तुम नहीं आये |
तुम्हारे इंतज़ार में नासिर बीत गया मौसम |
सब मेरे सो गए जज़्बात मगर तुम नहीं आये |
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Friday, September 13, 2013
कुछ चुनिन्दा रचनाएं
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