घर से बाबुल की में तो सफ़र में चली |
घर हुआ अजनबी वह जहां में पली |
जब बिचादने की मेरी वो आई घड़ी |
अपने घर में ही पराया सी लगने लगी |
क्या बताऊँ अपनि विदाइ का हाल |
सबकी आँखों में आंसू का फैला था जाल |
मेरी आँखों से आँसू फिर रुक न सके |
मुड़ के जो देखा फिर माँ ने मुझे |
थे पराये मगर लोग अपने लगे |
खुश रहने की दुआ सारे देने लगे |
घर बाबा के आखिर में छोड़ना पड़ा |
अपनी सहेलियों से मुंह मोड़ना पड़ा |
फिर चिली में एक ऐसे जहां के लिए |
अजनबी थी मैं बिल्कुल वहाँ के लिए |
कहते हैं के मैका बेटी का होता नहीं |
मगर पराये के लिए तो कोई रोता नहीं |
फिर क्यों विदा इ पे मेरे सबसे रोने लगे |
ग़मज़दा क्यों मेरी वजह से होने लगे |
बाबा ने वक़्त रुखसत यह मुझसे कहा |
सलामत रहे मेरी बेटी वहाँ तू सदा |
खुशियां चूमे कदम तो जो,जाए जहां |
दुनिया भर की खुशियां दे मालिक वहाँ |
सारी सखियाँ फिर गैरों से तकती रही |
ऐसा लगता था जीसे के मैं मर ही जाऊँ वहीं |
बचपन से था रिश्ता सब टूट गया |
मेरे बचपन का घर मुझ से छूट गया |
ये रीत है इसको निभाना पड़ेगा |
घर से बेटी को बाबुल के जाना पड़ेगा |
अपने बाबुल के घर की मैं धुवां हो गई |
ज़िन्दगी मेरी नासिर फिर रवां हो गई |
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Friday, September 13, 2013
बेटी की वोदाई
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